Thứ Sáu, 15 tháng 5, 2015

गउड़ी सुखमनी 148 मनु परबोधहु हरि कै नाइ ॥ दह दिसि धावत आवै ठाइ ॥

मन के पास जो बुद्धि है जो ज्ञान है उसके अलावा उसे और ज्ञान देना ही मन प्रबोधना है । मन में और रोशनी करना, मन को और ज्ञान देना ही मन को प्रबोधना है । हरि के ज्ञान द्वारा ही यह संभव है । संसारी ज्ञान देकर मन को प्रबोधा नहीं जा सकता । संसारी ज्ञान द्वारा मन दसों दिशाओं में भागता है फिर रुकता नहीं है । हरि – नाम द्वारा मन को प्रबोधने से यह दसों दिशाओं में भागने वाला मन टिकाव पाता है ।
ता कउ बिघनु न लागै कोइ ॥
जा कै रिदै बसै हरि सोइ ॥
उसे कोई विघ्न नहीं लगता, उसका रास्ता नहीं रुकता, जिसके हृदय में हरि
बसता है ।
कलि ताती ठांढा हरि नाउ ॥
सिमरि सिमरि सदा सुख पाउ ॥
कलि – कल्पना,
हमारी इच्छा, कल्पना बहुत गर्म होती है । माया की भूख या इच्छा अग्नि के समान ही होती है । जबकि हरि-नाम उसके विपरीत है बिलकुल ठंडा है । माया की भूख गर्म होती है लेकिन नाम की भूख ठंडी होती है ।
इसलिए यदि इस नाम का कोई सिमरन करता रहे तो वह सदा सुख पाता है ।
भउ बिनसै पूरन होइ आस ॥
भगति भाइ आतम परगास ॥
हर किस्म का भय समाप्त हो जाता है और आस पूर्ण होती है । जिस दिन भय का नाश हो गया उस दिन रोग बिलकुल चला जाता है । कोई चिंता नहीं रहती ।
चिंता जाए मिटै अहंकारु ॥ अंग 293
चिंता जाते ही अहंकार रूपी रोग दूर हो जाता है । जब हमारे अंदर का भय खत्म हो जाता है तब इसका अर्थ है कि हमारा रोग ठीक हो गया है । जिस दिन अपनी मर्जी चली गयी उस दिन भय भी नहीं रहेगा । भय अपनी मर्जी का ही होता है कि सब कुछ हमारी मर्जी मुताबिक होता रहे । अपनी मर्जी का त्याग करने से भय नहीं रहता ।
यहाँ अभी एक शर्त और है क्योंकि बहुत से अपराधी भी है जो भय मुक्त होते है लेकिन उनकी अवस्था गुरमत वाली नहीं होती ।
भय मुक्त होते हुए, आत्मा के परगास की भूख भी होनी चाहिए । भक्ति की भूख से अंदर आत्म परगास हो जाता है । गुरबानी के विचार की भूख से अंदर रोशनी ही रोशनी हो जाती है ।
तितु घरि जाइ बसै अबिनासी ॥
कहु नानक काटी जम फासी ॥३॥
इस अवस्था में जाकर अविनाशी पद प्राप्त होता है । उस घर में जाकर बसता है जहां सभी अविनाशी बसते हैं । वहाँ जाकर आप भी अविनाशी हो जाता है । यहाँ तक जम का भय बना रहता है । जम की फांसी यहीं काटी जाती है ।
इन पदों में भव-सागर से छूटने की विधि बताई गयी है ।

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